Wednesday, March 30, 2016

सुख दुख की परिभाषा सबके लिए अलग अलग होती है

शादी किसी भी तरीके से कोई माप दंड नहीं हैं समाज मे अपना स्थान बनाने के लिये । शादी करना या ना करना अपना व्यकिगत निर्णय होना चाहिये । इसे सामाजिक व्यवस्था का निर्णय मान कर जो लोग अविवाहित महिला को " असामाजिक तत्व " , "अल्फा वूमन ", "प्रगतिशील नारी !!!" , "फेमिनिस्ट " , "दूसरी औरत " , "होम ब्रेकर " , "वो " , इत्यादि नामो से नवाजते हैं उनको जरुर एक बार इन सब के चरित्र को पढ़ना चाहीये ।
हां ये सही हैं की पारंपरिक रूप से भारत मे नारी को केवल माँ - बहिन - बाटी और पत्नी के रूप मे देखा जाता हैं और सम्मान दिया जाता हैं समाज मे लेकिन क्या इसका मतलब ये हैं की जो महिला गैर पारंपरिक रूप मे नहीं हैं वो ग़लत हैं ?? बहुत सी विवाहित महिला हैं जो "वूमन अचीवर " मानी जाती हैं और जो निरंतर अपने को आगे लाने के लिये संघर्ष करती हैं घर मे भी बाहर भी लेकिन "सुपर वूमन " बनकर क्योकि वो आर्थिक रूप से सशक्त रहने के महत्व को जानती हैं । लेकिन ना जाने कितनी महिला ऐसी भी हैं जिनको अपना करियर दाव पर लग्न पड़ता हैं क्योकि समाज को "उनके विवाह " की फ़िक्र हैं । माता पिता का कर्तव्य हैं की बच्चो को शिक्षित करे , आत्म निर्भर बनाए , और उसके बाद अपने जीवन के निर्णय ख़ुद लेने दे ।
ये कहना की "मैं सब कर सकती हूँ, मुझमें पूरी काबिलियत है" का अहं कई बार उसे अपने ही सुख से वंचित रखता है।" नितांत गलत हैं क्योकि सबके सुख अलग अलग होते हैं , सुख को अगर परिभाषित करे तो " कोई भी इंसान जब अपनी मन की करता हैं / कर पाता हैं शायद तभी वह सबसे सुखद स्थिती मे अपने को देख पाता हैं । "
कही भी अगर शादी की बात पर बहस होती हैं तो शादी की जरुरत के कई कारण बताये जाते हैं कई आवाजे हैं जैसे नयी सृष्टि की रचना , भावनात्मक सुरक्षा , सामाजिक व्यवस्था , औरत माँ बन कर ही पूरी होती हैं , नारी पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं , समाज मे अराजकता रोकने मे सहायक । ये सब आवाजे शादी को महज एक जरुरत का दर्जा देती हैं क्यों कभी भी कहीं भी कोई आवाज ये कहती नहीं सुनाई देती की " हमने शादी अपनी खुशी के लिये की हैं " ।
इसलिये ये प्रश्न ही बड़ा बेमानी हैं यदि कोई किसी ऐसी महिला को जानता हो जो ४० पार कर चुकी हो लेकिन फिर भी शादी न की हो तो कृपया उनसे पूछकर बताये कि क्या वे वाकई में खुश हैं? । 
ख़ुद अविवाहित हूँ और साथ की अपनी हम उम्र विवाहित ब्लॉगर महिलो से जब बात करती हूँ तो पता चलता हैं की वो सब अपने बच्चो की शादी करने वाली हैं , उनके लेखो पर जो कैमेंट आते हैं उन मे कही भी उनके वस्त्रो पर , उन के रहन सहन पर व्यक्तिगत टिका टिपण्णी नहीं होती पर मेरे बारे मे जिस प्रकार से टिपण्णी की जाती हैं उस से बिल्कुल पता चलता हैं की मुझे एक "असामाजिक तत्व " समझा जाता हैं । लेकिन ये महज टिपण्णी करने वाले की मानसकिता को दिखाता हैं उनके अंदर बसे पूर्वाग्रह को दिखाता हैं ।

आप शादी करके सुखी हैं या दुखी हैं ?? नहीं जानना जरुरी हैं लेकिन अगर शादी इतनी जरुरी हैं तो आपने शादी क्यों की ?? इस को जानने की इच्छा जरुर हैं अपने हम उम्र ब्लॉगर दोस्तों से । क्या लिख सकते हैं चन्द शब्दों मे की आप के क्या क्या कारण थे शादी करने के या केवल समाजिक व्यवस्था के चलते ही सब शादी करते ।

'अब सुखी - दुखी , खुश , ना खुश की परिभाषा तो सब के लिये अलग अलग होती हैं }-- 
तो आप मानती है कि सुख दुख की परिभाषा सबके लिए अलग अलग होती है....

 जो विवाह करना चाहते हैं और यदि स्वयं अपने लिए साथी नहीं ढूँढ पाए किन्हीं भी कारणों से, उनके लिए किसी मित्र, रिश्तेदार, या विग्यापन आदि द्वारा साथी ढूँढना सही है। अन्यथा विवाह तभी करना चाहिए जब आप किसी को इतना चाहें कि उसके साथ जीवन बिताना चाहें। जिसे रुचि न हो उसे कभी भी नहीं करना चाहिए। विवाहित हूँ परन्तु न स्वयं विवाह किसी के कहने से किया, प्रेम था सो किया। बच्चियों के लिए भी कभी भी वर ढूँढने नहीं निकलती। उन्होंने भी इसलिए किया क्योंकि कोई उन्हें पसन्द था व वे उनके साथ जीवन बिताना चाहती थीं। ऐसे में भी खुशी मिलेगी ही नहीं कहा जा सकता। खुशियाँ चुननी पड़ती हैं जीवन में। कोई हाथ में रख नहीं देता। खुशियाँ पाने का हम सभी यत्न करते हैं कभी सफल होते हैं तो कभी असफल।
विवाह करना या न करना व्यक्ति का निजी मामला है। इसमें कोई कुछ नहीं कह सकता।
विवाह न सुख की, न दुख की गारंटी है। मूल बात तो जीवन को अपनी रीति से जीने की है और रीति को भी परिस्थितियाँ तय करती हैं। महिलाओं के विवाह के अनुभव रोमांचक होंगे और कुछ न कुछ नया सिखा ही जाएँगे।

हमारे समाज मे, शादी शुदा, अविवाहित, और सम्लैगिको के लिये व्यक्ति के स्तर पर समान इज़्ज़त होनी चाहिये, और कोई क्या चुनता है, ये व्यक्तिगत मसला ही होना चाहिये. ऐसा मेरा मानना है और हर तरह के लोगों को मै समान इज़्ज़त देती हू. मनुष्य को सबसे पहले और सबसे आखिर मे भी मनुष्य की तरह ही देखा जाना चाहिये.

मै शादी-शुदा, दो बच्चो की मा हूँ, काम-काज़ी भी हूँ. शादी भी इसिलिये की क्योंकि उस इंसान के साथ जीवन बांट्ना चाह्ती थी, और शादी फिलहाल दो लोगों के साथ रहने का सबसे सम्मान जनक तरीका है, एक फ्रेम. उस फ्रेम के भीतर की तस्वीर हम खुद तराशते रहते है. कोशिश रहती है कि दो व्यक्तियो का सम्मान बना रहे. मतभेद भी होते है, पर इतने बडे नही कि सुल्झाये न जा सके. 

बिना शादी के भी साथ रह सकती थी, पर उस स्थिति मे अपनी ऊर्ज़ा का एक बडा भाग उस रिश्ते को सही ठहराने मे अपव्यय होता. दूसरा है कानूनी स्थिति, बच्चे के ऊपर असर, और उनको बिन-बात के असहज स्थिति मे डालना. इसीलिये शादी मेरे लिये एक सामाजिक स्वीक्रिति का सर्टिफिकेट है, कि लोगों शांती रखो, और मेरे परिवार मे अपनी टांग़ मत घुसाओ!! और मै अपनी ऊर्ज़ा किसी ऐसे काम मे लागऊ जो मुझे पसन्द है.

फिलहाल इतना कह सकती हूँ कि जिस तरह अपने प्रोफेशन मे सफलता के लिये दिन-रात मेहनत करनी पडती है, समय देना पडता है, उसी तरह ग्रिहस्थी मे भी समय-समय पर नये-नये फेज़ आते है. उनसे डील करना पडता है, नयी चीज़े सीखनी पड्ती है, सुननी पडती है. प्राथमिकताये भी बार-बार बदलनी पडती है. सफलता का नियम है फ्लेक्शिबीलीटी.
सुख और दुख कोई स्थायी भाव नही है, और ये सिर्फ इसी से तय नही है कि मिया-बीबी मे प्यार है , कद्र है कि नही. जब खुशी आती है, तो लगता है कि जीवन का एक हिस्सा सार्थक है, जब दु:ख आता है तो मुझे थोडा और ज्यादा मनुश्य बना देता है, दूसरो के प्रति सम्वेदंशीलता बढा देता है, और जीवन की समझ को गहरा करता है. और साथ ही जो कुछ अच्छा है मेरे पास मुझे उसकी कद्र करना सिखाता है.

जीवनसाथी की ज़रूरत इन्ही सुख और दु:ख को बिन कहे बाटने के लिये होती है. और जीवन के संघर्ष मे यही एक सुख उन लोगों को मिलता है, जो शायद शादी-शुदा हो, सिर्फ इस शर्त पर की जीवन साथ् जीना है.
बाकि
"और भी गम है जमाने मे मुहब्बत के सिवा"

नारी ही नहीं, अविवाहित पुरुषों को भी अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता, मकानमालिक कमरा देने को तैयार नहीं होते. भेद केवल नर-नारी का नहीं, पीढियों का भी है, स्वतंत्रता की आकांक्षा नर को भी है. मेरी समझ में नहीं आता आप नर-नारी के भेद-भाव के चश्मे को हर समय क्यों पहने रहती हो. आप अविवाहित हैं, इसका आशय यह तो नहीं कि संसार की महिलाओं को अविवाहित ही रहना चाहिये या केवल अविवाहित महिलायें ही सुखी हैं तथा विवाहित महिला या पुरुष कष्ट भोग रहें हैं. आप से विनम्र निवेदन है कि भारतीय संसकृति के मूल तत्वों को समझिये, संभव हो तो पारिवारिक सुख व दायित्वों का अनुभव लेने पर विचार कीजियेगा, जीवन मूल्यों को समझिये, कालान्तर में जो कुप्रथायें सम्मिलित हो गयीं हैं, उनके विरोध में आवाज इसी प्रकार उठाते रहिये एक समय ऐसा आ सकता है, जो अभी आपको महिलाओं के शत्रु लगतें हैं वही मित्र भी लगने लग सकते हैं. हां कुछ अनुचित लगे तो छोटा समझ कर माफ़ कर दीजियेगा.

आपके निर्देशानुसार मैने पोस्ट को दुबारा पढ लिया है. इसके बाद कुछ स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता लग रही है-
१- सर्वप्रथम स्पष्ट करना चाहता हूं कि किसी को भी अपमानित करने का या किसी को तारगेट बनाने का मेरा आशय नहीं था, हां पोस्ट में 'मैंने शादी नहीं की की बात करके...... उस पर टिप्पणी करने को गलत नहीं माना जाना चाहिये. जब एक व्यक्ति या चन्द लोग सम्पूर्ण समाज को ही निशाना बना रहे हों, ऐसी स्थिति में वैयक्तिक टिप्पणी भी नहीं की जायेंगी मेरे विचार से यह विचार उचित नहीं लगता.
२- हो सकता है कि मेरे या आपके समझने में भूल हुई हो किन्तु समाज एक व्यक्ति से बढकर है. "हाथी के पांव में सबका पांव" समाज की या राष्ट्र की सुरक्षा के लिये किसी व्यक्ति या समुदाय को कुछ त्याग करना पडता है तो, हिचकना नहीं चाहिये, जब राष्ट्रीय परंपराओं, संस्कृति व विरासत को ही चोट पहुंचाने के प्रयास हों, जाने में या अन्जाने में तो इस प्रकार की टिप्पणी मजबूरी में करनी पडतीं हैं. राष्ट्र का आशय केवल चन्द नर या नारियों से नहीं लिया जा सकता. राष्ट्र का बहुसंख्यक समुदाय नर और नारी शादी, परिवार व समाज की व्यवस्थाओं पर विश्वास रखते हैं. 
३- कमरे की बात करके मैंने केवल इतना स्पष्ट करने का प्रयास किया था कि नर-नारी में प्रत्येक बात पर भेद-भाव करना उचित नहीं, व्यवस्थायें केवल नारी को ही नहीं नर को भी प्रभावित करती हैं, मुख्य बात यह है कि समाज के मानकों से अलग हट कर हमने समाज को ही ठोकर मारी है, ऐसी स्थिति में समाज को कमेण्ट करने से नहीं रोका जा सकता.
४- रही बात खुशियों की, जब तक हम समुदाय या समाज से जुडकर नहीं चलेंगे हमें दीर्घकालीन खुशियां नहीं मिल सकती, वह भले ही आप हों या मैं? सभी को खुशियां देकर ही हम खुश रह सकते हैं, वैयक्तिक खुशी अल्पकालिक होती है और सभी महिलायें मायावती नहीं बन सकतीं, अपवाद नियम नहीं बन सकते. वही व्यवस्था ठीक कहनी चाहिये जो बहुसंख्यकों को खुशियां दे सके.मैं अपने आप से व अपने काम से सन्टुष्ट हूं और दुखी होने के लिये मेरे पास समय नहीं है.
५- रही मेरी शादी की बात, केवल मेरी शादी ही नहीं उसके साथ दूसरी का भी नाम जुडा है. अत: मैं सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं कर सकता. मैं स्वयं सब कुछ झेल सकता हूं किन्तु पत्नी के स्वाभिमान की रक्षा करना भी मेरा कर्तव्य है. हां इतना अवश्य बता सकता हूं कि शादी के समय अशिक्षित थी, आज आठ वर्ष बाद वह स्नातक अन्तिम वर्ष की नियमित छात्रा के रूप में अध्ययन कर रही है और इस उद्देश्य से हम में विचारात्मक मतभेद भी है, वह सामान्यत: मौज-मस्ती में रहना चाहती है और मेरा उद्देश्य ही समाज व जन-सामान्य के हित को ध्यान में रखकर निरंतर कर्मरत रहना है. अतः हो सकता है कि हम कभी साथ न भी रह पायें उसके बाबजूद एक-दूसरे के दुश्मन कभी नहीं बनेंगे. मैने शादी पारंपरिक रूप से नहीं की, किन्तु लव मैरिज भी नहीं की. मेरा विचार आपके लिये इतना काफ़ी होगा और अधिक जानने की इच्छा हो तो ९४६०२७४१७३ पर बात कर सकतीं हैं.
मेरे कमेण्ट से किसी को भी भावनात्मक चोट पहुंची हो तो क्षमा चाहता हूं किन्तु मैनें सही लिखा था केवल सन्दर्भ के कारण अर्थ समझने में भूल हो सकती है. जहां विवाद की बात हो वहां-
त्यजेद एकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेद
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेद..

प्रकृति ने दोनों को एक सा बनाया हैं

एक महिला डॉक्टर ने आत्महत्या कर ली अपने सुसाइड नोट में उसने कारण दिया की उसका पति "गे" हैं और इस वजह से उसका वैवाहिक जीवन कभी सही नहीं रहा।  ५ साल के वैवाहिक जीवन के बाद भी वो सहवास सुख से वंचित हैं।  उसका ये भी कहना हैं की जब उसने अपने पति से पूछा तो उसको प्रताड़ित किया गया और उस से और उसके परिवार से दहेज़ माँगा जाने लगा।  उस ने अपना पूरा पत्र फेसबुक पर भी पोस्ट किया। 
कल का पूरा दिन सारा सोशल मीडिया इसी बात से गर्म गर्म बहस में उलझा रहा।  बहस ये होती रही की " गे " पति की वजह से एक स्त्री का जीवन नष्ट हो गया।या बहस ये होती रही की " गे " होने को अपराध क्यों मानते हैं लोग और क्यों नहीं "गे " लोग अपनी बात अपने परिवार से कह देते हैं और क्यों किसी स्त्री का जीवन नष्ट करते हैं।  और बहस का तीसरा मुद्दा ये भी रहा की समाज इतना असहिष्णु क्यों हैं और क्यों नहीं लोगो को अपनी पसंद से जीवन जीने देता हैं। 
 सवाल जिस पर बहस नहीं हुई
क्या किसी पति ने कभी आत्महत्या की हैं अपनी  पत्नी के "लिस्बन " होने के कारण ? 
क्या स्त्रियां "लिस्बन " होती ही नहीं हैं ?
एक नौकरी करती प्रोफेशनल क्वालिफाइड डॉक्टर महिला सुसाइड कर सकती हैं अपने पति के " गे " होने के कारण पर ये जानने के बाद भी की उसका पति "गे " हैं वो उससे अलग नहीं होना चाहती हैं क्युकी उसको प्यार करती हैं।  क्या ये  प्यार हैं ? अगर प्यार हैं तो समझ कर और "गे " होने को बीमारी ना मान कर उसका इलाज ना करके अपने पति से अलग क्यों नहीं हुई ?
अगर महिला आर्थिक रूप से सक्षम थी तो इतना भय किस बात का डाइवोर्स की मांग करने से। 

स्त्री पुरुष के प्रति समाज का रव्या हमेशा से दोहरा रहा हैं और इस बात पर चर्चा ही नहीं होती हैं। 
आज से नहीं सदियों से अगर स्त्री प्रजनन में अक्षम है तो पति तुरंत दूसरा विवाह कर लेता हैं लेकिन अगर पुरुष प्रजनन में अक्षम हैं तो स्त्री को निभाना होता हैं
इसी प्रकार से अगर पुरुष सहवास के सुख से वंचित हैं विवाह में तो कई बार पत्नी की बिना मर्जी के भी उस से सम्बन्ध बनाता हैं { आज कल ये बलात्कार की क्षेणी में आता हैं } लेकिन स्त्री के लिये ऐसा कुछ भी नहीं हैं। 

इसी विभेद के चलते स्त्रियां कभी मानसिक रूप से सशक्त नहीं हो पाती हैं उनके लिये शादी आज भी एक "सामाजिक सुरक्षा कवच " हैं जिसको वो पहन कर खुश होती हैं। 

कभी उन कारण पर भी बात होनी चाहिये जहां एक लड़का "गे " हो सकता हैं पर एक लड़की " लिस्बन " नहीं होती हैं। 
प्रकृति ने दोनों को एक सा बनाया हैं पर समाज ने दोनों को बड़े होने के एक से अवसर प्रदान नहीं किये हैं। 

नर और नारी दोनों आज़ाद हैं , बराबर हैं इस लिये उस मुद्दे पर बार बार बहस करना गलत हैं।  दोनों को तरक्की के समान अधिकार मिले , पढ़ाई के समान अधिकार हो , रोजगार के समान अधिकार हो , समान काम के एवज  में समान तनखा हो बात इन सब मुद्दो पर होनी चाहिये। 

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हर मुद्दे को भटकना कितना आसान हैं
रेप पर बनी फिल्म का विरोध सरकार इस लिये कर रही कर रही थी की कहीं फिल्म देख कर फिर से वो स्थिति ना पैदा हो जाए जहां पर जनता सड़को पर उतर आये जैसे तब हुआ जब रेप हुआ।  खुद पुलिस विभाग ने इसके प्रदर्शन पर रोक की मांग की। 
लेकिन फिर भी एक जेल में बंद रेप के आरोपी को १०००० लोगो की भीड़ ने बाहर निकाल कर पीट कर मौत के घाट उतार दिया। 
फेसबुक पर लोग पूछ रहे हैं क्या पुरुष केवल रेप करने वाले दरिँदै हैं या पिता , भाई , पति इत्यादि  भी हैं
लो बोलो पूछने वाले अखबार लगता पढ़ते ही नहीं हैं जो रेप करता हैं वो भी किसी का भाई बेटा और पति होता हैं और इसीलिये वो सजा से बचता आया हैं क्युकी यही सब उसके कवच बन जाते हैं कानून भी नरम रुख लेता हैं इस बुढ़ापे की लाठी , एक ही कमाने वाले के लिये। 
एक फिल्म से पुरुष समाज में इतनी हल चल क्यों ? बात समाज की हो रही थी , बात सिस्टम  की हो रही थी आप की नहीं।  आप को ऐसा क्यों हमेशा लगता हैं की  स्त्री के साथ कहीं भी कुछ गलत हुआ हैं लोग आप को जिम्मेदार मानेगे।  
अपने अंदर नहीं आपने आस पास झाँकिये और देखिये कैसे अपनी बेटी की दोस्त के साथ एक "पिता" शारीरिक सम्बन्ध बनाने की बात करता हैं या कैसे एक नेता वोट के लिये "लड़के /गलती " की बात करता हैं।  ये सब भी आप के ही सभ्य समाज का हिस्सा हैं। 
हमको जगाने के लिये किसी फिल्म की जरुरत नहीं है क्युकी सोई हुई आत्मा फिल्म से क्या जागेगी।  

आइये मिल कर उन सब लोगो को बैन दे जो रेप जैसे घिनोने शब्द के बारे मे बात करते हैं। रेप करने वाले क्या सोचते है इसको दिखा कर क्या हासिल होगा। हम तो रोज आईना देखते हैं फिर कोई विदेशी महिला जो खुद रेप का शिकार हुई हैं उसको क्या हक़ हैं हम को आईना दिखाने का।

लोग कहते हैं हम अपनी अगली पीढ़ी को बहुत से संस्कार दे कर जा रहे हैं और खबरों पढ़िये तो पता चलता हैं की नोबल पुरूस्कार विजेता , भारतीये रतन विजेता इत्यादि बड़ी बड़ी ना इंसाफियां करते हुए अपने मकाम तक पहुचे हैं। 
किसी पर यौन शोषण का आरोप हैं , किसी पर धांधली का तो किसी पर धर्म परिवर्तन करवाने का। 
वो जो जितने ऊंचाई के पायदान पर खड़े दिखते वो उतने ही रसातल में दबे हैं। 
लोग ये भी कहते हैं मीडिया का क्या हैं किसी के खिलाफ कुछ भी लिख देता हैं
एक ७४ साल के आदमी पर एक २४ साल की लड़की यौन शोषण का आरोप लगाती हैं और हम आज भी रिश्तो की दुहाई ही देते नज़र आते हैं। ७४ और २४ साल में कितनी पीढ़ियों का अंतर हैं पता नहीं पर ७४ वर्ष में ये पहला आरोप होगा क्या ये संभव

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गौरतलब है कि जन्म से पहले भ्रूण के लिंग का पता लगाने की कुप्रवृत्त‍ि के कारण  इस समय तक न जाने कितनी बच्च्यिों को जन्म से पहले ही मारा जा चुका है। देश के अधि‍कांश प्रदेशों में इस कुप्रवृत्त‍ि ने अपनी जड़ें जमा रखी हैं। अभी तक तो यही समझा जाता था कि कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ व ग्रामीण लोगों में लड़कियों की पैदाइश को बुरा मानते हैं मगर शहरी क्षेत्रों से आने वाले आंकड़ों ने सरकार और गैरसरकारी संगठनों के कान खड़े कर दिए हैं कि यह प्रवृत्त‍ि कमोवेश पूरे देश में व्याप्त हो चुकी है और इसके खात्मे के लिए हर स्तर पर जागरूकता प्रोग्राम चलाए जाने चाहिए,  साथ ही कड़े दंड का प्रावि‍धान भी होना चाहिए । 
दूरदराज के इलाकों वाले अश‍िक्षित समाज में कन्या भ्रूण हत्या को अंजाम देने वालों से ज्यादा शहरी और शिक्षित परिवारों में बेटा और बेटी के बीच फ़र्क किये जाने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट का ये नया तमाचा है जो उनके श‍िक्षित होने पर भी सवाल खड़े करता है क्योंकि अब भी इंटरनेट  का सर्वाधिक उपयोग श‍िक्षित समाज ही करता है और सर्च इंजिन्स का यही सबसे बड़ा उपभोक्ता है। 

विवाह विच्छेद /तलाक और महिला अधिकार

आज मैं आप सभी को जिस विषय में बताने जा रही हूँ उस विषय पर बात करना भारतीय परंपरा में कोई उचित नहीं समझता क्योंकि मनु के अनुसार कन्या एक बार ही दान दी जाती है किन्तु जैसे जैसे समय पलटा वैसे वैसे ये स्थितियां भी परिवर्तित हो गयी .महिलाओं ने इन प्रथाओं के कारण [प्रथाओं ही कहूँगी कुप्रथा नहीं क्योंकि कितने ही घर इन प्रथाओं ने बचाएं भी हैं] बहुत कष्ट भोगा है .हिन्दू व मुस्लिम महिलाओं के अधिकार इस सम्बन्ध में अलग-अलग हैं .
सर्वप्रथम हम मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात करते हैं.पहले मुस्लिम महिलाओं को तलाक के केवल दो अधिकार प्राप्त थे १-पति की नपुन्संकता,२-परपुरुशगमन का झूठा आरोप[लियन]
किन्तु न्यायिक विवाह-विच्छेद [मुस्लिम विवाह-विच्छेद अधिनियम१९३९]द्वारा मुस्लिम महिलाओं को ९ आधार प्राप्त हो गए हैं:
१-पति की अनुपस्थिति,
२-पत्नी के भरण-पोषण में असफलता,
३-पति को सात साल के कारावास की सजा,
४-दांपत्य दायित्वों के पालन में असफलता,
५-पति की नपुन्संकता,
६-पति का पागलपन,
७-पत्नी द्वारा विवाह की अस्वीकृति[यदि विवाह के समय लड़की १५ वर्ष से काम उम्र की हो तो वह १८ वर्ष की होने से पूर्व विवाह को अस्वीकृत कर सकती है],
८-पति की निर्दयता,
९-मुस्लिम विधि के अंतर्गत विवाह विच्छेद के अन्य आधार,
ऐसे ही हिन्दू विधि में विवाह विधि संशोधन अधिनियम १९७६ के लागू होने के बाद महिलाओं की स्थिति मज़बूत हुई है और पति द्वारा बहुविवाह व पति द्वारा बलात्कार,गुदा मैथुन अथवा पशुगमन दो और आधार महिलाओं को प्राप्त हो गए हैं जबकि इससे पूर्व ११ आधार पति-पत्नी दोनों को प्राप्त थे.वे आधार हैं;
१-जारता, २-क्रूरता, ३-अभित्याग, ४ -धर्म-परिवर्तन, ५ -मस्तिष्क विकृत्त्ता ,६--कोढ़ ,७-- रतिजन्य रोग ,८-संसार परित्याग, ९--प्रकल्पित मृत्यु ,१० -न्यायिक प्रथक्करण , ११- -दांपत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन की आज्ञप्ति का पालन न करना
इस तरह अब हिन्दू महिलाओं को तलाक के १३ अधिकार प्राप्त है किन्तु जैसा की मैं आपसे पहले भी कह चुकी हूँ कि महिलाओं में अपने अधिकारों को लेकर कोई जागरूकता नहीं है वे घर बचाने के नाम पर पिटती रहती हैं,मरती रहती हैं,सिसक सिसक कर सारी जिंदगी गुज़ार देती हैं यदि एक बार वे पुरुषों को अपनी ताक़त का अहसास करा दें तो शायद इन घटनाओ पर कुछ रोक लग सकती है क्योंकि इससे पुरुषों के निर्दयी रवैय्ये को कुछ चुनौती तो मिलेगी.मैं नहीं चाहती आपका घर टूटे किन्तु मैं महिलाओं को भी टूटते नहीं देख सकती इसीलिए आपको ये जानकारी दे रही हूँ ताकि आपकी हिम्मत बढे और आप अपना और अपनी और बहनों का जीवन प्यार व विश्वास से सजा सकें...

Tuesday, March 29, 2016

केन्द्रीय मंत्री मंडल में कांट छाँट

केन्द्रीय मंत्री मंडल में की गई लीपा पोती से आशाएं ? कुछ लोग इससे बड़ी बड़ी आशाएं लगा कर बैठे हैं !
केन्द्रीय मंत्री मंडल के जिस परिवर्तन को नए चेहरे के रूप में इतना महिमा मंडित किया जा रहा है, उसका विश्लेषण करते हैं। कुल 8 चेहरे बदले गए 4 काबिना स्तर के व 4 राज्य स्तर के, जिनमे कोई भी 60 वर्ष से कम नहीं है।  क्या ये हैं, युवा नेता के युवा सहयोगी ?
क्या कभी कोयला धोने से सफ़ेद हुआ है ? पूरी की पूरी सरकार के 4 वर्ष के घोटालों को कैसे धोया जा सकता है?  इन मंत्रियों के बदलने से सरकार का चेहरा कैसे बदलेगा ? परिवर्तन के संकेत का आंकलन करते हैं। सीसराम ओला को जब हटाया गया था क्या कारण था ? चुनाव से पूर्व इसे लाकर मंत्रालय की कार्यक्षमता निखरेगी या बिगड़ेगी ? संप्रग 1 व 2 के घोटालों के दाग मिटने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है अपितु अब न तो कार्य करने के लिए समय बचा है न घोटाले करने के लिए। मुझे हटा के मोटे 2 घोटाले तुम करो, दाग धोने के लिए मुझे बुला लो; क्या यह बात उसे और उद्विग्न नहीं करेगी ? बंसल पर आरोप लगे, उसे हटाकर मलिकार्जुन खड्गे को रेल मंत्री बना कर क्या सन्देश दे रहे हैं, कि बड़े बड़े घोटालेबाजों के बीच छोटे मोटे आरोप के मंत्री स्वीकार नहीं ? स्पष्ट है न मंत्रालय का कार्य सुधारना है, न सरकार की छवि। यह केवल और केवल वोट साधने /रिझाने का विशुद्ध रूप से राजनैतिक हत्कंडा मात्र है। कुछ क्षेत्रों में चुनाव देखते हुए चुनावी समीकरण के अंतर्गत जातीय गोटियाँ बिछाने को "किस भाषा में" सरकार का चेहरा चमकाना कहते हैं? यह मेरी समझ से तो परे है। कांग्रेस प्रवक्ता नदीम जावेद स्वयं स्वीकार करते है, कि चेहरा बदलने की बात नहीं है।
70 मंत्रियों के कुनबे में से शेष 62 में अधिकांश वही हैं जो बड़े बड़े घोटाले व अन्य आरोप लगने के बाद भी जमे है। यह तो तब है जब नेतृत्व म. मो. सिंह जैसा अनुभवी वयोवृद्ध व कथित योग्य व्यक्ति के हाथ में है। जब नेतृत्व उस हाथ में होगा, जो आयु, क्षमता, योग्यता व अनुभव हर स्तर पर, सबसे निम्नतम होगा, तो केवल परिवार के टैग लगाने से वह योग्य कैसे बन जायेगा ? कौन बनेगा कठपुतली, कौन किसे नचाएगा ? देश जब एक कठिन परिस्थितियों से जूझ रहा है। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए अनुभवहीन नेतृत्व का प्रयोग, कितना घातक होगा ? यह जानकर भी, लुटेरे सत्ता के गलियारों की बन्दगी से, चाँदी के कुछ ठीकरे पाने की आशा में, राहुल राहुल का जाप क्या राष्ट्र द्रोह नहीं है ? देश को ऐसे शर्मनिर्पेक्षों से बचाने की आवश्यकता है।
नितीश व प्रलय के संकेत कांग्रेस के लिए धर्म निर्पेक्षता की परिभाषा कोई विचारधारा नहीं पाले से है। कांग्रेस का विरोधी व भाजपा के पाले मे रह कर सांप्रदायिक होने वाला, भाजपा से हट कर इनके समर्थन में आते ही, धर्म निर्पेक्ष हो जाता है ? म. मो. सिंह ने भले ही पाला बदलने से, नीतीश को धर्म निर्पेक्ष कहा, किन्तु तभी प्रकृति ने प्रलय के आक्रोश से स्पष्ट संकेत दिया, कि यह कार्य प्रलयंकारी है, विनाशकारी है।
राज नीति गन्दी लगे तो उससे भागो मत, युवाओं में उसका शुद्धिकरण करने की क्षमता है उस क्षमता का उपयोग करो।  हमारी तो बीत गई, भविष्य तुम्हारा है, कैसा हो तुम्हे निर्धारित करना है 
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यह महाभारत द्वापर की महाभारत से कुछ हट कर है। समय के साथ साथ महाभारत में भी कुछ परिवर्तन दिखने लगे हैं।
पहले की महाभारत में गान्धारी ने अपनी आँखों पर पट्टी बांध रखी थी व स्वयं नियमों से बंधी थी। आज की गान्धारी जनसामान्य को नियमों से बाँधकर व उनकी आँखों पर कानून की तथा विचार बदलने हेतु मस्तिष्क पर भ्रामक प्रचार की पट्टी चढ़ा देती है।
पहले सभी कौरव बुरे नहीं थे, केवल दुर्योधन के समर्थन के अपराधी थे। आज दुर्योधन व गान्धारी के साथ सभी 100 कौरव अपने 200 हाथों से अपने ही देश को खोखला करने में लगे हैं। भीष्म केवल इंद्र प्रस्थ के कारण उनका साथ नहीं दे रहे, लूट में भागीदारी उन्हें भी मिल रही है। दूसरी ओर कृष्ण अभी दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। जबकि दोनों पक्षों की सेनाएं कुरुक्षेत्र में उतरने की तैयारी में हैं।
पहले गान्धार नरेश व गान्धारी को संजय कुरुक्षेत्र का आँखों देखा वर्णन सुनाते थे, अब हम जनता जनार्दन को सुनायेंगे।
अथ नव महाभारत कथा। यह कथा भी है यथार्थ की, मोदी के पुरुषार्थ की सारथि वो स्वयं बने और स्वयं ही है पार्थ भी, शत कौरवों के चक्र व्यूह को भेदना है राष्ट्र और हिंदुत्व के स्वाभिमान के रक्षार्थ ही। जय घोष द्विग्घोषित हुए, लाज भारत की है अब हर राष्ट्र भक्त के हाथ में। वोट लुटा तो देश लुटेगा  साथ में अस्तित्व भी।

बाल विवाह

भारतीय समाज अपनी समृद्ध संस्कृति के लिए पुरे विश्व में जाना जाता है किन्तु हमारे समाज में आज भी इतनी कुरीतिया व्याप्त हैं जिनका आज तक कोई निदान नहीं हुआ इसी वजह से आज भी हम दुसरे देशों से बहुत पीछे हैं इन कुरितियो में एक है बाल विवाह

बाल विवाह एक ऐसी कुरीति है जिसने हमारे देश के बचपन को रौंद के रख दिया है

भारतीय गांवों में आज भी बाल विवाह किये जाते है . कानून भी बने हुए हैं किन्तु यह कुप्रथा आज भी हमारे समाज में 'जस की तस ' चली आ रही है . क्यूँ माँ , बाप अपने बगीचे की नन्ही कलियों के साथ ये खिलवाड़ करते हैं . उनको क्या मिलता होगा यह सब करके . कभी सोचा कि छोटे छोटे बच्चों को शादी के बंधन में बाँध देते है . उनको मालूम भी होगा शादी क्या होती है शादी कि मायने क्या हैं ?,उनका शरीर शादी के लिए तैयार भी है ?वो नन्ही सी आयु शादी के बोझ को झेल पायेगी?

वो मासूम बचपन , जिसमें छोटे छोटे फूल खिलते हैं ,मुस्कुराते हैं, नाचते हैं ,गाते हैं ऐसे लगते हैं मानो धरती का स्वर्ग यही हो, खुदा खुद इन में सिमट गया हो कहते हैं बचपन निछ्चल , गंगा सा पवित्र होता है तो क्यूँ ये माँ बाप ऐसे स्वर्ग को नरक कि खाई में धकेल देते हैं उनकी बाल अवस्था में शादी करके 'सोचो '
जब फुलवाड़ी में माली पौधे लगता है उनको पानी खाद देता है सींचता है वो जब बड़े होते हैं उनपे नन्ही नन्ही कलियाँ आती हैं देखने में कितनी अच्छी लगती हैं जब वही कलिया खिलके फूल बनती हैं तो पूरी फुलवाड़ी उनसे महक उठती है

यदि वही कलियाँ फूल खिलने से पहले तोड़ दी जाएँ उनको पावों तले रौंद दिया जाये तो पूरी फुलवाड़ी बेजान हो जाती है ऐसे ही यह छोटे छोटे बच्चे हैं इनके बचपन को खिलने दो महकने दो जब ये शादी के मायने समझे इनका शरीर और मन , दिमाग शादी के योग्य हो ,आत्म निर्भर हो ग्रहस्थी का बोझ उठाने योग्य हो तभी इनकी शादी कि जाये

किन्तु ये बात लोग नहीं समझते क्यूंकि आज भी हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी अनपढ़ गंवार है और ८०% से ज्यादा लोग गाँवों में रहते हैं इनलोगों को समझाने से पहले हमें इनको शिक्षित करना होगा

इसके पीछे एक और बड़ा कारण है हमारे देश की बढती हुई आबादी और गरीबी .गरीबी और अनपढ़ता के कारण माँ बाप अपने छोटे छोटे बच्चे -बच्चिओं को बेचने तक मजबूर हो जाते हैं इसीलिए उनका विवाह बचपन में कर देते हैं और उनसे उनका बचपन छीन लेते हैं

इस कुरीति से निपटने के लिए एक तो कानून जो बने हैं उनमें सुधार की अवश्यकता है और उन्हें कडाई से लागू करना होगा

सबसे बड़ी बात लोगों को जागरूक करना होगा इस के विरुद्ध .बाल विवाह से क्या शारीरक और मानसिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं क्या क्या दुःख झेलने पड़ते हैं जब छोटी छोटी बच्चिआं माँ बनती हैं और साथ ही हमें लोगों को शिक्षित भी करना होगा

हम पढ़े-लिखे लोगों को आगे आना होगा इसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी कहीं भी बाल विवाह होता देखें तो उसकी रिपोर्ट पुलिसे ठाणे में करें ये कर्तव्य है हमारा अपने प्रति, उस मसूं बचपन के प्रति और समाज के प्रति जिस दिन ये कर्तव्य लोग निभाना सीख लेंगे उस दिन ऐसी कुरीतिया हमारे समाज से दूर हो जायेंगी और धीरे धीरे हमारा समाज में भी बचपन खिलखिलाने लगेगा मुस्कुराने लगेगा और हमारी बगिया महकने लगेगी

Wednesday, January 8, 2014

KAVITA

झूठे इतिहास लिखकर,
विजेता बन बैठे तुम,
पाखंड फैलाकर,
सत्ताधारी बन बैठे तुम,
और हमें नीच बुलाते हो...
खेत-खलियान हड़पकर,
धनवान बन बैठे तुम,
भुखमरी फैलाकर,
सभ्यवान बन बैठे तुम,
और हमें अछूत बुलाते हो...
महिलाओं को देव-दासी बनाकर,
देवता बन बैठे तुम,
दहेज़-प्रथा फैलाकर,
संस्कृतिवान बन बैठे तुम,
और हमें समाज-कंटक बुलाते हो...
लोगों को जात-पात में बांटकर,
मानवीय-प्रेरक बन बैठे तुम,
साम्प्रदायिकता फैलाकर,
शांति-दूत बन बैठे तुम,
और हमें आतंककारी बुलाते हो...
मंदिरों के रूप में दूकान बनाकर,
पुजारी बन बैठे तुम,
चारों तरफ दुर्गन्ध फैलाकर,
मठाधीश बन बैठे तुम,
और हमें अश्लील बुलाते हो...
एकलव्य का अंगूठा काटकर,
मेरीटवान बन बैठे तुम,
अंधविश्वास फैलाकर,
ज्ञानी बन बैठे तुम,
और हमें मूर्ख बुलाते हो...
काली कमाई से धन जुटाकर,
परोपकारी बन बैठे तुम,
उपोषण-भयादोहन-ग ­ुंडागर्दी फैलाकर,
अहिंसा के पुजारी बन बैठे तुम,
और हमें हिंसक बुलाते हो...
रोटी के बदले अस्मिता लूटकर,
पूज्यनीय बन बैठे तुम,
अराजकता फैलाकर,
राष्ट्रभक्त बन बैठे तुम,
और हमें राष्ट्र-द्रोही बुलाते हो...
कलम छीनकर,
शिक्षा-शास्त्री ­ बन बैठे तुम,
जातिवाद फैलाकर,
समाजवादी बन बैठे तुम,
और हमें अनपढ़-गंवार बुलाते हो...

Sunday, March 4, 2012

दलित परिवार का हुक्का-पानी बंद


इक्कीसवीं सदी में आने के बावजूद भी गांवों में आज भी दलितों के प्रति सामंती सोच अब भी कायम है और प्रशासनिक अमला उसे नहीं बदल सकता है। समरथपुरा गांव में गत दिनों पुलिस संरक्षण में घोड़ी पर निकाली गई दलित दूल्हों की बिंदौली के विवाद एक रैगर परिवार को पुलिस प्रशासन से मदद मांगना भारी पड़ गया है।
अब गांव के ही कथित पंच-पटेलों ने दलित परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर हुक्का-पानी बंद कर दिया है। इतना ही नहीं दुकानदारों को भी सामान नहीं देने के लिए सामंती फरमान जारी कर पाबंदी लगा दी है। अब अदालत ने पुलिस को आरोपितों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर जांच के आदेश दिए हैं। मामले के अनुसार समरथपुरा निवासी रामपाल रैगर ने अपने अधिवक्ता मनोज जाजोरिया के जरिये आरोपित समरथपुरा निवासी लक्ष्मण सिंह, शोभासिंह, धर्मासिंह, जीता सिंह, छोटू सिंह, कानसिंह, पप्पू सिंह, किशनसिंह, छोटू सिंह एवं अखे सिंह सभी रावत सहित दस जनों के खिलाफ भादसं की धारा 323, 341, 120 एवं एससीएसटी एक्ट के तहत पुष्कर न्यायालय में परिवाद पेश किया।

परिवाद में बताया गया कि उसकी (परिवादी) की दो पुत्रियां संगीता व पूजा का विवाह गत 3 जून को हुआ। इस दौरान आरोप है कि आरोपितों ने धमकी दी कि दलित दूल्हों की यदि बिंदौली घोड़ी पर निकाली तो दूल्हों को बेइज्जत कर नीचे उतार दिया जाएगा। इस पर परिवादी ने प्रशासन व पुलिस की मौजूदगी में घोड़ी पर बिंदौली निकाली थी। इससे नाराज होकर आरोपितों रंजिश रखने लग गए। सबने ऐलानिया धमकी देकर गांव में परिवादी का सामाजिक व आर्थिक बहिष्कार कर दिया। आरोपितों ने गांव के दुकानदारों को दलित परिवार को सामान बेचने पर पाबंदी लगा दी तथा सार्वजनिक स्थान पर पानी भरने व आने-जाने से रोक दिया।

सौजन्य से: दैनिक जागरण वेब-साइट