Wednesday, March 30, 2016

सुख दुख की परिभाषा सबके लिए अलग अलग होती है

शादी किसी भी तरीके से कोई माप दंड नहीं हैं समाज मे अपना स्थान बनाने के लिये । शादी करना या ना करना अपना व्यकिगत निर्णय होना चाहिये । इसे सामाजिक व्यवस्था का निर्णय मान कर जो लोग अविवाहित महिला को " असामाजिक तत्व " , "अल्फा वूमन ", "प्रगतिशील नारी !!!" , "फेमिनिस्ट " , "दूसरी औरत " , "होम ब्रेकर " , "वो " , इत्यादि नामो से नवाजते हैं उनको जरुर एक बार इन सब के चरित्र को पढ़ना चाहीये ।
हां ये सही हैं की पारंपरिक रूप से भारत मे नारी को केवल माँ - बहिन - बाटी और पत्नी के रूप मे देखा जाता हैं और सम्मान दिया जाता हैं समाज मे लेकिन क्या इसका मतलब ये हैं की जो महिला गैर पारंपरिक रूप मे नहीं हैं वो ग़लत हैं ?? बहुत सी विवाहित महिला हैं जो "वूमन अचीवर " मानी जाती हैं और जो निरंतर अपने को आगे लाने के लिये संघर्ष करती हैं घर मे भी बाहर भी लेकिन "सुपर वूमन " बनकर क्योकि वो आर्थिक रूप से सशक्त रहने के महत्व को जानती हैं । लेकिन ना जाने कितनी महिला ऐसी भी हैं जिनको अपना करियर दाव पर लग्न पड़ता हैं क्योकि समाज को "उनके विवाह " की फ़िक्र हैं । माता पिता का कर्तव्य हैं की बच्चो को शिक्षित करे , आत्म निर्भर बनाए , और उसके बाद अपने जीवन के निर्णय ख़ुद लेने दे ।
ये कहना की "मैं सब कर सकती हूँ, मुझमें पूरी काबिलियत है" का अहं कई बार उसे अपने ही सुख से वंचित रखता है।" नितांत गलत हैं क्योकि सबके सुख अलग अलग होते हैं , सुख को अगर परिभाषित करे तो " कोई भी इंसान जब अपनी मन की करता हैं / कर पाता हैं शायद तभी वह सबसे सुखद स्थिती मे अपने को देख पाता हैं । "
कही भी अगर शादी की बात पर बहस होती हैं तो शादी की जरुरत के कई कारण बताये जाते हैं कई आवाजे हैं जैसे नयी सृष्टि की रचना , भावनात्मक सुरक्षा , सामाजिक व्यवस्था , औरत माँ बन कर ही पूरी होती हैं , नारी पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं , समाज मे अराजकता रोकने मे सहायक । ये सब आवाजे शादी को महज एक जरुरत का दर्जा देती हैं क्यों कभी भी कहीं भी कोई आवाज ये कहती नहीं सुनाई देती की " हमने शादी अपनी खुशी के लिये की हैं " ।
इसलिये ये प्रश्न ही बड़ा बेमानी हैं यदि कोई किसी ऐसी महिला को जानता हो जो ४० पार कर चुकी हो लेकिन फिर भी शादी न की हो तो कृपया उनसे पूछकर बताये कि क्या वे वाकई में खुश हैं? । 
ख़ुद अविवाहित हूँ और साथ की अपनी हम उम्र विवाहित ब्लॉगर महिलो से जब बात करती हूँ तो पता चलता हैं की वो सब अपने बच्चो की शादी करने वाली हैं , उनके लेखो पर जो कैमेंट आते हैं उन मे कही भी उनके वस्त्रो पर , उन के रहन सहन पर व्यक्तिगत टिका टिपण्णी नहीं होती पर मेरे बारे मे जिस प्रकार से टिपण्णी की जाती हैं उस से बिल्कुल पता चलता हैं की मुझे एक "असामाजिक तत्व " समझा जाता हैं । लेकिन ये महज टिपण्णी करने वाले की मानसकिता को दिखाता हैं उनके अंदर बसे पूर्वाग्रह को दिखाता हैं ।

आप शादी करके सुखी हैं या दुखी हैं ?? नहीं जानना जरुरी हैं लेकिन अगर शादी इतनी जरुरी हैं तो आपने शादी क्यों की ?? इस को जानने की इच्छा जरुर हैं अपने हम उम्र ब्लॉगर दोस्तों से । क्या लिख सकते हैं चन्द शब्दों मे की आप के क्या क्या कारण थे शादी करने के या केवल समाजिक व्यवस्था के चलते ही सब शादी करते ।

'अब सुखी - दुखी , खुश , ना खुश की परिभाषा तो सब के लिये अलग अलग होती हैं }-- 
तो आप मानती है कि सुख दुख की परिभाषा सबके लिए अलग अलग होती है....

 जो विवाह करना चाहते हैं और यदि स्वयं अपने लिए साथी नहीं ढूँढ पाए किन्हीं भी कारणों से, उनके लिए किसी मित्र, रिश्तेदार, या विग्यापन आदि द्वारा साथी ढूँढना सही है। अन्यथा विवाह तभी करना चाहिए जब आप किसी को इतना चाहें कि उसके साथ जीवन बिताना चाहें। जिसे रुचि न हो उसे कभी भी नहीं करना चाहिए। विवाहित हूँ परन्तु न स्वयं विवाह किसी के कहने से किया, प्रेम था सो किया। बच्चियों के लिए भी कभी भी वर ढूँढने नहीं निकलती। उन्होंने भी इसलिए किया क्योंकि कोई उन्हें पसन्द था व वे उनके साथ जीवन बिताना चाहती थीं। ऐसे में भी खुशी मिलेगी ही नहीं कहा जा सकता। खुशियाँ चुननी पड़ती हैं जीवन में। कोई हाथ में रख नहीं देता। खुशियाँ पाने का हम सभी यत्न करते हैं कभी सफल होते हैं तो कभी असफल।
विवाह करना या न करना व्यक्ति का निजी मामला है। इसमें कोई कुछ नहीं कह सकता।
विवाह न सुख की, न दुख की गारंटी है। मूल बात तो जीवन को अपनी रीति से जीने की है और रीति को भी परिस्थितियाँ तय करती हैं। महिलाओं के विवाह के अनुभव रोमांचक होंगे और कुछ न कुछ नया सिखा ही जाएँगे।

हमारे समाज मे, शादी शुदा, अविवाहित, और सम्लैगिको के लिये व्यक्ति के स्तर पर समान इज़्ज़त होनी चाहिये, और कोई क्या चुनता है, ये व्यक्तिगत मसला ही होना चाहिये. ऐसा मेरा मानना है और हर तरह के लोगों को मै समान इज़्ज़त देती हू. मनुष्य को सबसे पहले और सबसे आखिर मे भी मनुष्य की तरह ही देखा जाना चाहिये.

मै शादी-शुदा, दो बच्चो की मा हूँ, काम-काज़ी भी हूँ. शादी भी इसिलिये की क्योंकि उस इंसान के साथ जीवन बांट्ना चाह्ती थी, और शादी फिलहाल दो लोगों के साथ रहने का सबसे सम्मान जनक तरीका है, एक फ्रेम. उस फ्रेम के भीतर की तस्वीर हम खुद तराशते रहते है. कोशिश रहती है कि दो व्यक्तियो का सम्मान बना रहे. मतभेद भी होते है, पर इतने बडे नही कि सुल्झाये न जा सके. 

बिना शादी के भी साथ रह सकती थी, पर उस स्थिति मे अपनी ऊर्ज़ा का एक बडा भाग उस रिश्ते को सही ठहराने मे अपव्यय होता. दूसरा है कानूनी स्थिति, बच्चे के ऊपर असर, और उनको बिन-बात के असहज स्थिति मे डालना. इसीलिये शादी मेरे लिये एक सामाजिक स्वीक्रिति का सर्टिफिकेट है, कि लोगों शांती रखो, और मेरे परिवार मे अपनी टांग़ मत घुसाओ!! और मै अपनी ऊर्ज़ा किसी ऐसे काम मे लागऊ जो मुझे पसन्द है.

फिलहाल इतना कह सकती हूँ कि जिस तरह अपने प्रोफेशन मे सफलता के लिये दिन-रात मेहनत करनी पडती है, समय देना पडता है, उसी तरह ग्रिहस्थी मे भी समय-समय पर नये-नये फेज़ आते है. उनसे डील करना पडता है, नयी चीज़े सीखनी पड्ती है, सुननी पडती है. प्राथमिकताये भी बार-बार बदलनी पडती है. सफलता का नियम है फ्लेक्शिबीलीटी.
सुख और दुख कोई स्थायी भाव नही है, और ये सिर्फ इसी से तय नही है कि मिया-बीबी मे प्यार है , कद्र है कि नही. जब खुशी आती है, तो लगता है कि जीवन का एक हिस्सा सार्थक है, जब दु:ख आता है तो मुझे थोडा और ज्यादा मनुश्य बना देता है, दूसरो के प्रति सम्वेदंशीलता बढा देता है, और जीवन की समझ को गहरा करता है. और साथ ही जो कुछ अच्छा है मेरे पास मुझे उसकी कद्र करना सिखाता है.

जीवनसाथी की ज़रूरत इन्ही सुख और दु:ख को बिन कहे बाटने के लिये होती है. और जीवन के संघर्ष मे यही एक सुख उन लोगों को मिलता है, जो शायद शादी-शुदा हो, सिर्फ इस शर्त पर की जीवन साथ् जीना है.
बाकि
"और भी गम है जमाने मे मुहब्बत के सिवा"

नारी ही नहीं, अविवाहित पुरुषों को भी अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता, मकानमालिक कमरा देने को तैयार नहीं होते. भेद केवल नर-नारी का नहीं, पीढियों का भी है, स्वतंत्रता की आकांक्षा नर को भी है. मेरी समझ में नहीं आता आप नर-नारी के भेद-भाव के चश्मे को हर समय क्यों पहने रहती हो. आप अविवाहित हैं, इसका आशय यह तो नहीं कि संसार की महिलाओं को अविवाहित ही रहना चाहिये या केवल अविवाहित महिलायें ही सुखी हैं तथा विवाहित महिला या पुरुष कष्ट भोग रहें हैं. आप से विनम्र निवेदन है कि भारतीय संसकृति के मूल तत्वों को समझिये, संभव हो तो पारिवारिक सुख व दायित्वों का अनुभव लेने पर विचार कीजियेगा, जीवन मूल्यों को समझिये, कालान्तर में जो कुप्रथायें सम्मिलित हो गयीं हैं, उनके विरोध में आवाज इसी प्रकार उठाते रहिये एक समय ऐसा आ सकता है, जो अभी आपको महिलाओं के शत्रु लगतें हैं वही मित्र भी लगने लग सकते हैं. हां कुछ अनुचित लगे तो छोटा समझ कर माफ़ कर दीजियेगा.

आपके निर्देशानुसार मैने पोस्ट को दुबारा पढ लिया है. इसके बाद कुछ स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता लग रही है-
१- सर्वप्रथम स्पष्ट करना चाहता हूं कि किसी को भी अपमानित करने का या किसी को तारगेट बनाने का मेरा आशय नहीं था, हां पोस्ट में 'मैंने शादी नहीं की की बात करके...... उस पर टिप्पणी करने को गलत नहीं माना जाना चाहिये. जब एक व्यक्ति या चन्द लोग सम्पूर्ण समाज को ही निशाना बना रहे हों, ऐसी स्थिति में वैयक्तिक टिप्पणी भी नहीं की जायेंगी मेरे विचार से यह विचार उचित नहीं लगता.
२- हो सकता है कि मेरे या आपके समझने में भूल हुई हो किन्तु समाज एक व्यक्ति से बढकर है. "हाथी के पांव में सबका पांव" समाज की या राष्ट्र की सुरक्षा के लिये किसी व्यक्ति या समुदाय को कुछ त्याग करना पडता है तो, हिचकना नहीं चाहिये, जब राष्ट्रीय परंपराओं, संस्कृति व विरासत को ही चोट पहुंचाने के प्रयास हों, जाने में या अन्जाने में तो इस प्रकार की टिप्पणी मजबूरी में करनी पडतीं हैं. राष्ट्र का आशय केवल चन्द नर या नारियों से नहीं लिया जा सकता. राष्ट्र का बहुसंख्यक समुदाय नर और नारी शादी, परिवार व समाज की व्यवस्थाओं पर विश्वास रखते हैं. 
३- कमरे की बात करके मैंने केवल इतना स्पष्ट करने का प्रयास किया था कि नर-नारी में प्रत्येक बात पर भेद-भाव करना उचित नहीं, व्यवस्थायें केवल नारी को ही नहीं नर को भी प्रभावित करती हैं, मुख्य बात यह है कि समाज के मानकों से अलग हट कर हमने समाज को ही ठोकर मारी है, ऐसी स्थिति में समाज को कमेण्ट करने से नहीं रोका जा सकता.
४- रही बात खुशियों की, जब तक हम समुदाय या समाज से जुडकर नहीं चलेंगे हमें दीर्घकालीन खुशियां नहीं मिल सकती, वह भले ही आप हों या मैं? सभी को खुशियां देकर ही हम खुश रह सकते हैं, वैयक्तिक खुशी अल्पकालिक होती है और सभी महिलायें मायावती नहीं बन सकतीं, अपवाद नियम नहीं बन सकते. वही व्यवस्था ठीक कहनी चाहिये जो बहुसंख्यकों को खुशियां दे सके.मैं अपने आप से व अपने काम से सन्टुष्ट हूं और दुखी होने के लिये मेरे पास समय नहीं है.
५- रही मेरी शादी की बात, केवल मेरी शादी ही नहीं उसके साथ दूसरी का भी नाम जुडा है. अत: मैं सार्वजनिक रूप से चर्चा नहीं कर सकता. मैं स्वयं सब कुछ झेल सकता हूं किन्तु पत्नी के स्वाभिमान की रक्षा करना भी मेरा कर्तव्य है. हां इतना अवश्य बता सकता हूं कि शादी के समय अशिक्षित थी, आज आठ वर्ष बाद वह स्नातक अन्तिम वर्ष की नियमित छात्रा के रूप में अध्ययन कर रही है और इस उद्देश्य से हम में विचारात्मक मतभेद भी है, वह सामान्यत: मौज-मस्ती में रहना चाहती है और मेरा उद्देश्य ही समाज व जन-सामान्य के हित को ध्यान में रखकर निरंतर कर्मरत रहना है. अतः हो सकता है कि हम कभी साथ न भी रह पायें उसके बाबजूद एक-दूसरे के दुश्मन कभी नहीं बनेंगे. मैने शादी पारंपरिक रूप से नहीं की, किन्तु लव मैरिज भी नहीं की. मेरा विचार आपके लिये इतना काफ़ी होगा और अधिक जानने की इच्छा हो तो ९४६०२७४१७३ पर बात कर सकतीं हैं.
मेरे कमेण्ट से किसी को भी भावनात्मक चोट पहुंची हो तो क्षमा चाहता हूं किन्तु मैनें सही लिखा था केवल सन्दर्भ के कारण अर्थ समझने में भूल हो सकती है. जहां विवाद की बात हो वहां-
त्यजेद एकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेद
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेद..

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